राहुल गुप्ता पत्रकार एवं सहायक प्रध्यापक
उपमहाद्वीप की परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदली कि नई कहानी’ का सिर चढ़ा जादू विलुप्त होने लगा। 1962 तक देश की परिस्थितियाँ और भी विषम हो गई। परिणामतः कहानी में एक विद्रोह और आक्रोश का स्वर उभरा जो विभिन्न कथा-आन्दोलनों के रूप में दिखाई देता है। नई कहानी की कथ्यगत और शिल्पगत रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया। कभी इन नामों में किंचित् सार्थकता थी तो कभी स्वयं को रचनाकार द्वारा स्थापित करने की घटिया जोड़-तोड़। किन्तु इन आन्दोलनों को यह श्रेय तो दिया ही जा सकता है कि इससे कहानी में सक्रियता रचना और चर्चा-दोनों ही स्तरों पर बनी रही।समकालीन कहानी का कथ्य इतना व्यापक और वैविध्यपूर्ण है कि युग-जीवन की कोई भी समस्या, चिन्ता और महत्त्वपूर्ण प्रश्न ऐसा नहीं है जिसे कहानी में विषय न बनाया गया हो। समाज और परिवेश की प्रत्येक समस्या कहानीकार को आन्दोलित करती है जिसका प्रतिफलन उसकी रचना में होता है। इसलिए हम इस समकालीन कहानी को लेखकीय सोच और चिन्तन के साथ जीवन का ई.सी.जी. (E. C. G) कहें तो अधिक उपयुक्त होगा। समाज के हृत-कम्पनों में कथ्य की दो धाराएँ मुख्यतः लक्षित की जा सकती हैं। प्रथम धारा वह है जहाँ कहानी हमारे परिवेश के किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न, समस्या और स्थिति से साक्षात्कार करती है दूसरी धारा वह है जहाँ कहानी मानवीय चरित्र, सम्बन्धों की जटिलता को व्यक्त करती हुई मानव-व्यक्तित्व के अनजाने पक्षों का उद्घाटन करती है अथवा जाने हुए सत्यों एवं स्थितियों को सर्वथा नए कोण से उठाकर चित्रित करती है। प्रथम धारा को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से सामाजिक चिन्तन की धारा और दूसरी को मानवीय चरित्र और सम्बन्धों की विवृति करनेवाली धारा कह सकते हैं। ऐसा नहीं है कि एक कोटि की कहानी में दूसरे प्रकार की कहानी का विषय न रखने की प्रतिबद्धता हो। अधिकांश सशक्त कहानियाँ अपनी प्रकृति में इतनी संश्लिष्ट होती हैं कि वे सामाजिक स्थितियों का चित्रण भी करती हैं और व्यक्ति चरित्र के अनचीन्हे पक्षों को भी सामने लाती हैं। फिर भी कहानी एक छोटी विधा है जिनमें या तो सामाजिक चिन्ता प्रधान होती है या मानवीय चरित्र के किसी पक्ष विशेष का उद्घाटन होता है।
समकालीन कहानी में जीवन के आर्थिक पक्ष, जीवन जीने की विषम आर्थिक स्थितियाँ विशेष रूप से चित्रित हुई हैं। निम्नमध्यवर्ग, मध्यवर्ग, विशेषतः नौकरीपेशा वर्ग की आर्थिक समस्याएँ, दिन-प्रतिदिन बढ़ती महँगाई, करों का बोझ, भ्रष्ट शासन-तन्त्र तथा नौकरशाही की अकर्मण्यता जनता के कष्टो को और भी बढ़ती हुई जीवन जीने की स्थितियों को विषमतर बनाती जा रही है। इन सब स्थितियों पर एक से बढ़कर एक सशक्त कहानियाँ इस दौर में लिखी गई हैं। शिक्षित बेरोजगारी और युवा पीढ़ी का बढ़ता आक्रोश, ग्रामीण जीवन में आए विभिन्न परिवर्तन, अकाल, सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं की मार, महानगरीय जीवन के विविध सन्त्रास, भ्रष्ट प्रशासन-तन्त्र, राजनीति का निरन्तर बदतर होता जा रहा स्वरूप, जीवन के सभी क्षेत्रों में बढ़ता भ्रष्टाचार तथा उसके सामने सामान्य आदमी की बेबसी, आदि इस कहानी की मुख्य चिन्ताएँ रही हैं। साम्प्रदायिकता की भयंकर समस्या पर भी कहानी ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए एक सही सोच पाठक को दी है। दलित समाज और नारी की समस्याओं पर भी बहुत सशक्त कहानियाँ लिखी गई हैं।पिछले दो दशकों की कहानी में कहानीकार की जो चिन्ताएँ प्रमुख रही हैं, उनमें देश पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा हो रहे सांस्कृतिक आक्रमण, उपभोक्तावाद के चलते पैसे की अन्धी दौड़, सुरसा-सा मुँह फाड़ती हमारी नित्य नई आवश्यकताएँ, विज्ञापन जगत द्वारा आवश्यकताओं का सृजन, उनको पाने की उत्कट आकांक्षाएँ, मूल्यों के टूटने की पीड़ा, राजनीति का बढ़ता उपराधीकरण, जोड़-तोड़ की राजनीति आदि पर प्रमुखता से लिखा गया। इस प्रकार आज हिन्दी कहानी का फलक अत्यन्त व्यापक है।