“मानवीयता बची रहेगी, अगर पुस्तकें बची रहें!” – हरिवंश
गरीब दर्शन @ डॉ० विनय कुमार सिंह
इस अवसर पर अनेक पुस्तकों के लेखक, लब्धप्रतिष्ठ पत्रकार और संप्रति राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी से डॉ० विनय की बातचीत के मुख्य अंश :-
विनय – क्या पढ़ना अच्छा लगता है? किस तरह की किताबें इंतजार करती हैं कि आप उन्हें पढ़ें?
हरिवंश जी : विनय जी! मैं कह नहीं सकता कि पुस्तकों से कब आत्मीय लगाव हुआ, पर आज यह कह सकता हूँ कि पुस्तकें नहीं हों तो शायद जीवन में रास्ता ना मिले और अकेलेपन के जीवन में, संकट के क्षणों में ऊर्जा पाने का एकमात्र माध्यम, विश्वसनीय माध्यम पुस्तकें ही हैं और पुस्तको के प्रति एक सहज और स्वाभाविक लगाव मैं मानता हूँ कि जीवन में प्रकृति ने ही शायद दिया है, क्योंकि बचपन से पुस्तकों ने आकर्षित किया और कुछ पुस्तकें अगर नाम लेनी हो, जिन्हें लगातार पढ़ करके मैं अपनी हर मन:स्थिति में एक नई दृष्टि, एक समझ पाता हूँ, एक ऊर्जा पाता हूँ, उनमें से कुछ एक का जरूर मैं उल्लेख करना चाहूँगा। जैसे, हिंदी में उसका नाम है, ‘समर गाथा’ जो अमृत राय जी द्वारा अनूदित है। यह एक उपन्यास है, हॉवर्ड फास्ट (Howard Fast) का ‘दी ग्लोरियस ब्रदर्स’ (The Glorious Brothers)। मनुष्य अपनी अस्मिता के लिए, किस तरह से अपनी निजी स्वतंत्रता, निजी चिंतन, अपनी आत्मभूमि, अपनी राष्ट्रीयता, अपने देश, अपने वजूद के लिए किस तरह संघर्ष करता है.. अद्भुत उपन्यास है! बार-बार उसके पात्र आकर्षित करते हैं। दूसरी पुस्तक, जिसने जीवन पर गहरा असर डाली, पुस्तक न कहूँ, बल्कि विषय कहूँ, कृष्ण हैं। कृष्ण पर लिखी बहुत सारी पुस्तकों ने मुझे आकर्षित किया। फिर इतिहास की पुस्तकों ने बहुत आकर्षित किया। इनमें मैं अगर कहूँ तो विल डूरंट (Will Durant) की 11 खंडों में लिखी ‘द स्टोरी ऑफ़ सिविलाइजेशन’। भारत पर उनकी अद्भुत किताब है कि भारत की सभ्यता और संस्कृति कितनी गौरवपूर्ण रही है! हमारे उपनिषद अद्भुत हैं। रामायण और महाभारत तो मैं कहूँ कि जीवन में जो भी गंभीर सवाल हैं, उन सबका दर्शन इन पुस्तकों में है। इनसे बाहर जीवन कहीं कुछ है ही नहीं। मैं अगर अध्यात्म में कहूँ तो परमहंस योगानंद की अमर आत्मकथा है, ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’। पॉल ब्रंटन को आज लोग नहीं जानते। भारतीय अध्यात्म पर उस व्यक्ति ने सौ-डेढ़ सौ वर्षों पहले इतना काम किया है। उनकी बड़ी मशहूर किताब है, ‘ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया’ और पंद्रह-बीस और किताबे है। फिलहाल में राधानाथ स्वामी.., ये मूलतः अमेरिकी हैं। उनकी दो पुस्तकें बड़ी रिमार्केबल आई हैं, अध्यात्म की दृष्टि से। एक का नाम है, स्मृति के आधार पर कह रहा हूँ, ‘द जर्नी होम’ है और दूसरे का नाम भी कुछ इसी तरह मिलता-जुलता है। अद्भुत पुस्तकें हैं! जीवन क्या है? रमण महर्षि के बारे में, महर्षि अरविंद के बारे में, उनकी रचनाएँ अद्भुत आकर्षित करती हैं। साथ ही, स्वामी सत्यानंद स्वामी, निरंजनानंद, जिन्होंने मुंगेर योग स्कूल बनाया। इसके अलावा, स्वामी सत्संगी जी। अद्भुत उनकी रचनाएँ हैं! पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब तो पुस्तकों के बड़े शौकीन थे।
विनय : जी! अरुण कुमार तिवारी से जो संवाद हुए हैं, उसमें भी उन्होंने अपनी पसंद की पुस्तकों का जिक्र किया है।
हरिवंश जी : हाँ, जरूर किया होगा। आप सही कह रहे हैं, पर उन पुस्तकों में एक पुस्तक का नाम मैं बताता हूँ, जिसको मैं कहूँ कि सिरहाने में रखता हूँ, पढ़ता हूँ। उनमें पॉल केनेडी की एक किताब है, लिलियन इचलर वॉटसन की पुस्तक ‘लाइट फ्रॉम मेनी लैंप्स : ए ट्रेजरी आफ इंस्पिरेशन’ (Light from many Lamps : A Treasury of Inspiration) है, अद्भुत किताब है! हर व्यक्ति को अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि जीवन, विनय जी! उतार-चढ़ाव, निराशा-आशा, आस्था-अनास्था – इन सबका मेलजोल है जीवन। जब जीवन में ऐसे क्षणों से आप गुजरते हैं तो पुस्तकें, और ऐसी पुस्तकें खासतौर से, अद्भुत ताकत देती हैं। अब ‘समर गाथा’ के बारे में अगर मैं आपको बताऊँ तो मनुष्य का स्वत्व, अपनी पहचान और संस्कृति धमनियों में रक्तप्रवाह की तरह है! यानी राष्ट्रीयता, हमारा स्वाभिमान, आजादी की कोई कीमत नहीं होती। अपनी शर्तों पर जीने की कीमत चुकाने वाली कौम की वो प्रेरणा की लौ, जो कभी बुझी नहीं! मैं पिछले दिनों हल्दी घाटी गया था, नवंबर में। वहाँ जब खड़े हुए तो मुझे डॉक्टर लोहिया की वो पंक्ति याद आई। उन्होंने कहा कि 1000 वर्षों का इतिहास देखिए। हमारे यहाँ हल्दीघाटी जैसे प्रसंग बहुत कम मिलते हैं। रेयर..। पर एक हल्दी घाटी का होना यह बताता है कि भारत का स्वाभिमान कभी कैसे जागरूक हुआ, अस्त नहीं हुआ। तो ‘समर गाथा’ एक रूप में उसी की, उसी तरह की, मनुष्य की प्रवृत्ति की कथा है। कृष्ण के बारे में कहूँ, जिस पुस्तक का उल्लेख किया, मनु शर्मा की.. , कृष्ण हैं तो लोकमानस में रचे बसे ईश्वर के रूप में, पर इतनी पीड़ा, दर्द और जीवन, जो कृष्ण ने ईश्वर के रूप में पाया, जो दुःख पाया, वो शायद ही किसी ने पाया। जन्म से संसार छोड़ने तक कृष्ण के व्यक्तित्व, जीवन, कथा और पल-पल में पूरा संसार ही समाया है। जीवन वही नहीं है, जो हम देखते हैं। इससे इतर का जीवन-रहस्य समझने के लिए अध्यात्म की पुस्तकें, उसमें परमहंस योगानंद जी की अमर कालजयी कथा, ब्रिटेननिवासी पॉल ब्रंटन की सैकड़ो वर्ष पहले लिखी भारत पर आध्यात्मिक किताबें, स्वामी राधानाथ की किताब, अभी मास्टर एम, मूलतः वह केरल के मुस्लिम हैं, लेकिन भारतीय अध्यात्म पर जो उनकी गहराई और चिंतन है, हर देशवासी को पढ़ना चाहिए। आज दुनिया पढ़ती है।
विनय : आपकी पुस्तक ‘कलश’, ‘पथ के प्रकाशपुंज’ में ये सारी बातें आयी हैं ..
हरिवंश जी : अंत में मैं यह कहना चाहूँगा कि अपने हिंदी इलाके को मैंने कैसे समझा, पुस्तकों के माध्यम से। जब मैं विद्यार्थी था, हिंदी इलाके के समाज को, उसके परिवर्तन को समझने के लिए किसी समाजशास्त्री को मुझे नहीं पढ़ना पड़ा, बल्कि उसमें राजनीतिक हालात, सांस्कृतिक परिवेश, आर्थिक तंत्र, परिवारों का ताना-बाना पढ़ने के लिए उस दौर में, जब हम लोग बड़े हो रहे थे, पाँच किताबें को मैंने पढ़ा हुआ है। मानता हूँ कि अगर इनको पढ़ लें तो उस दौर को समझने के लिए किसी समाजशास्त्री को पढ़ने की जरूरत नहीं होगी। ‘रागदरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल), ‘अलग अलग वैतरणी’ (शिवप्रसाद सिंह), ‘आधा गाँव’ (राही मासूम रजा), ‘मैला आँचल (फणीश्वरनाथ रेणु), ‘बेहैया के जंगल (ललित निबंध, कृष्ण बिहारी मिश्र)। इनके अलावा हजारों पुस्तकें मेरे जीवन का हिस्सा हैं। एक तरह से मैं कहूँ आपको, पुस्तकों से घिरा रहना मुझे बड़ा अद्भुत आनंद देता है। मैं लगातार पढ़ता हूँ, लगातार पुस्तकें खरीदता हूँ। हर बड़े शहर में कम से कम बहुत पुरानी दुकानें है। 25-25 वर्षों से मेरा रागात्मक लगाव है। तो मैं यह कह सकता हूँ कि पुस्तकें नहीं होतीं तो हमारे जैसा मामूली समझ का आदमी भी अपना जो एक नए ढंग से सोचने की कोशिश करता हूँ, वो नहीं कर पाता।
विनय : जी! अब सवाल है, दो तीन और थे, जिनके जवाब तो मुझे इसी में मिल गए हैं। एक सवाल है कि हम क्यों पढ़े किताबें ? क्या सही है कि पुस्तकों से संवेदनशीलता जाग्रत होती है?
हरिवंश जी : पुस्तकें मनुष्य के संवेदनशील मन का स्पर्श करती हैं। वो वो बड़े प्रभावी ढंग से आपके सोचने-समझने के संवेदनशील तत्त्वों को गहराई से प्रभावित करती हैं। मैं आपको बताऊँ कि कविता, कहानी, उपन्यास, दरअसल ये असल चीज़ें हैं, जो मनुष्य को बदलती हैं। राजनीति एक सीमा तक व्यवस्था को बदलती है, लेकिन उससे आगे वैचारिक चीज़ों ने ही दुनिया को बदला हैं आज तक। अब उसकी जगह टेक्नोलॉजी ले रही हैं। मनुष्य के मन को बदलने का काम तो साहित्य करता है। एक सीमा के आगे साहित्य जैसा प्रभावी दूसरा कोई माध्यम नहीं। यह मेरा निजी मानना है। आप देखें, हमारे महर्षि अरविंद की पुस्तक ‘सावित्री’, जिस पर नोबेल प्राइज देने की चर्चा हुई थी, क्या अद्भुत कल्पना है! हम सामान्य लोग उसको समझ नहीं पाते।
विनय : एक दार्शनिक ने लिखा भी है कि सावित्री को समझ पाने की क्षमता नोबेल कमेटी में नहीं थी..
हरिवंश जी : बिलकुल! पुस्तकें पढ़ करके जीवन की दृष्टि मिलती है। हम सबको और मुझे लगता है कि पुस्तकें न हो तो मनुष्य का जीवन श्रीहीन हो, ऐसा मुझे लगता है।
विनय : इन जवाबों से मेरे दो और सवाल थे, जिनके जवाब मिल गए हैं। एक तो आपके लेखन का सर्जनस्रोत जिसका जवाब मिल चुका है और क्या पुस्तकें आध्यात्मिक संकेत देती हैं? हाँ देती हैं, यह जवाब मिल चुका है। अब एक-दो छोटे-छोटे सवाल। क्या लिखा आपने, जिसे लिखने के बाद सर्वाधिक संतुष्टि मिली और क्या लिखने की इच्छा है, जिसे अब तक लिखा नहीं या लिखना चाहेंगे?
हरिवंश जी : मैं आपसे कहना चाहूँगा कि दुनिया के कई देशों में गया। उन देशों में जाकर के यह देखना, जानना कि किस समाज ने कैसे करवट ली, लोगों ने अपनी ज़िन्दगी कैसे बदली? मनुष्य का संकल्प, मनुष्य का हौसला, मनुष्य का जज्बा कैसे अपनी नयी नियति लिख सकता है- ऐसे विषयों पर लिख करके जब मैं एक पत्रकार के रूप में अपने पाठकों के सामने रखता था तो मुझे बहुत संतोष की अनुभूति होती थी! मैं अपने देश के लोगों को बताऊँ कि हम अपने हौसला से, हम अपने संकल्प से, अपने इरादे से, कैसे देश को बुलंदी की ओर ले जा सकते हैं! हमें क्या और करना चाहिए..। जनमानस हमारा कैसा होना चाहिए..। हम सिर्फ नेतृत्व से अपेक्षा करें, वह अपनी जगह एक अलग मुद्दा है, लेकिन नेतृत्व के साथ-साथ हमारी भागीदारी, भूमिका क्या है, इस पर लंबा और गंभीर लिखता था। उससे भी मुझे बहुत संतोष मिलता था। गाँव में जाकर मैं रिपोर्ट करता था, उससे भी मुझे संतोष मिलता था। आंतरिक अनुभूति के लिए जब मैं कैलास मानसरोवर की यात्रा पर गया तो उस पर लिखा – जीवन क्या है? अध्यात्म क्या है? – तो बहुत संतोष मिलता था। चंद्रशेखर जी की जीवनी लिखी कि एक सामान्य परिवार से निकलकर कैसे उन्होंने दुनिया में अपनी जगह अपने बूते, अपने संकल्प से बनायी, अपनी शर्तों पर बनायी। बहुत सारे लोग उनके बारे में नहीं जानते। वह सब लिखा तो मुझे सार्थक अनुभूति हुई। जहाँ तक सवाल है कि क्या लिखना चाहेंगे तो बहुत सारे विषय मन में रहते हैं। ये खुद रहता है कि ये सृष्टि क्या है? कृष्ण, जो बड़े आकर्षित करते हैं, कृष्ण का जीवन कैसे अपने आप एक संदेश है? इच्छा रहती है कि सब मैं अपने लोगों को बता सकूँ, लिख सकूँ तो बहुत सुकून मिलेगा
विनय : हमारी भी इच्छा है कि आपकी ये इच्छा पूरी हो और हम पढ़ पाएँ। कुछ सवाल थे तो इसके जवाब तो मुझे मिल गए कि आपकी प्रिय पुस्तकें, आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं? एक और सवाल और अंतिम सवाल, आज के संदर्भ में कि क्या ई-बुक से मुद्रित पुस्तकें चलन से बाहर हो जाएँगी, आज के संदर्भ में देखें तो..?
हरिवंश जी : मैंने तो बताया कि मैं पुस्तको की पीढ़ी का व्यक्ति हूँ और आज भी हर महीने में कम से कम पुस्तकें तो खरीद ही लेता हूँ और औसतन सात-आठ हजार का तो पढ़ जाता होगा। मेरा कोई और खर्च नहीं है। मैं तो उस पीढ़ी का हूँ, जो पुस्तकों के बीच ही पला-बढ़ा। इसलिए मैं तो सोच ही नहीं सकता! आज भी दुनिया में बहुत सारी जगहों पर किताबों की बड़ी दुकानें सम्मानित दृष्टि से देखी जाती हैं; चाहे यूएस हो, ब्रिटेन हो, कहीं भी और पुस्तकें बिक भी रही हैं। इसलिए, मुझे नहीं लगता कि वैसा अवसर आएगा।
विनय : क्योंकि मुद्रित पुस्तकों के स्पर्श के सुख का विकल्प ई-बुक नहीं है ..
हरिवंश जी : मैं आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ विनय जी!
विनय : शब्द की धारा में अर्थ का आवेश हैं पुस्तकें, जो मन-मानस को ऊर्जस्वित करती रहती हैं। पढ़ने की प्रवृत्ति बनी रहे तो मुझे लगता है, बची रहेंगी पुस्तकें। लेखक सार्थक लिखते रहें, पाठक सतत पढ़ते रहे तो शब्द रहेंगे साक्षी, सभ्यता के भी, संस्कृति के भी! आपने इतना समय दिया, हम अनुगृहीत हैं। धन्यवाद!
हरिवंश जी : मनुष्य की मानवीयता बची रहेगी, अगर पुस्तकें बची रहें तो। बहुत धन्यवाद विनय जी!